Saturday, September 11, 2010

जयपुर के सांगानेर में रंगाई-छपाई की टेक्सटाइल इंडस्ट्रीज प्रकृति के लिए काल बनने का काम कर रहे हैं।

सांगानेर। प्रदेश के लिए अमृत समान महत्वपूर्ण माना जाने वाला पानी सांगानेर में प्रदूषण की समस्या का सबसे ज्यादा सामना कर रहा है। वस्त्र नगरी में चल रहे 750 रंगाई-छपाई की टेक्सटाइल इंडस्ट्रीज से निकलने वाला यह पानी अपनी प्रवृति इतनी अधिक बदल चुका है कि इसका नाम ही काला पानी पड़ गया है। सरकार और जिला प्रशासन ने जल्दी ही प्रदूषण को रोकने का इंतजाम नहीं किया तो यह सांगानेर के जनजीवन के लिए निश्चित ही बहुत घातक सिद्ध होगा।
जयपुर के सांगानेर में रंगाई-छपाई की टेक्सटाइल इंडस्ट्रीज प्रकृति के लिए काल बनने का काम कर रहे हैं।
ये बने हैं जान के लिए जोखिम
काले पानी को डिसॉल्व्ड सॉलिड, सल्फेट, क्लोराइड, फ्लोराइड, नाइट्रोजन, हार्डनेस और कैल्शियम की अधिक मात्रा मिलकर घातक बनाती है। इसको किसी भी प्रकार से इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। जानवर इसको पीकर मौत के मुँह में भी जा सकता है।

जयपुर के सांगानेर में रंगाई-छपाई की टेक्सटाइल इंडस्ट्रीज से निकलने वाले पानी को जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग द्वारा पूर्व में ही खतरनाक घोषित किया जा चुका है, क्योंकि यह वॉटर एक्ट के मापदण्डों पर खरा नहीं माना गया था।

Brij Ballabh Udaiwal
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Sunday, September 5, 2010

स्क्रीन प्रिंटिंग इस क्षेत्र के मुख्य प्रदूषक हैं, तो फिर सांगानेरी हैण्ड ब्लॉक प्रिंट को क्यों दंडित किया जाना चाहिए ?

द्रव्यवती नदी, उर्फ अमानी शाह का नाला में डाई वेस्ट वॉटर क्या आप जानते हैं जान लेवा बन रहा है पानी

कभी यह नदी जयपुर की जीवनरेखा थी। लेकिन आज गन्दा नाला है जिसमे आधे जयपुर का मलमूत्र और विश्वकर्मा,झोटवारा,करतारपुरा,सुदर्शनपुरा,मानसरोवर ओद्योगिक क्षेत्रो के साथ ही डालडा फेक्ट्री का भी पानी भी इसी नाले में आता है लेकिन श्री विजय सिंह पुनिया, राजस्थान प्रदुषण नियंत्रण मंडल एवं राजस्थान सरकार को सिर्फ सांगानेर का छपाई एवं रंगाई उद्योग ही नाले में दूषित पानी छोड़ने के लिये दोषी नज़र आया जिसके परिणाम स्वरुप आज विदेशी मुद्रा अर्जित करने वाले एवं तीन लाख लोगो को रोजगार देने वाले 500 वर्ष पुराने औद्योगिक शहर पर गाज गिरने की नोबत आ गई है।


सांगानेर गांव के पुराने छपाई वाले बताते हैं कि इस नदी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। कच्चा बंधा, रावल जी का बंधा, हाथी बाबू का बांध, ख्वास जी का बांध, गूलर बांध एवं रामचन्द्रपुरा का बांध सिंचाई के मकसद से ही बनाए गए।



नदी के क्षेत्रफल को परिभाषित करने वाले नदी के किनारों पर पिलर लगा दिए गए और सरकार ने आदेश जारी किए कि इस क्षेत्र के अंदर कोई भी निर्माण अवैध माना जाएगा। परन्तु सरकार एवं उसके विभिन्न विभागों तथा निकायों द्वारा इस नदी के संरक्षण संवर्धन के नाम पर जो प्लान बनाये गए है , उनमें भारी अनियमितताओं को देख कर लगता है कि ''सरकार स्वयं ही इस नदी को नाले में तब्दील करने पर अमादा है



सांगानेर स्थित रंगाई-छपाई की टेक्सटाइल इंडस्ट्रीज में कपड़ों को रंगने की प्रक्रिया में लाखों लीटर पानी प्रयोग किया जाता है। यूनिटों से रोजाना लाखों लीटर डाई वेस्ट वॉटर निकलकर अमानीशाह नाले या सड़क किनारे फैल रहा है। इनसे निकलने वाले प्रदूषित जल से न केवल जल प्रदूषण, बल्कि वायु प्रदूषण भी हो रहा है। इतना ही नहीं इन इकाइयों से निकलने वाला पानी जहां से होकर गुजर रहा है, वहां की जमीन की उपज क्षमता कम हो रही है। ऎसे में काफी समय से इस प्रदूषण को खत्म करने की मांग चली आ रही है। सांगानेर, मुहाना मोड़, बालावाला व आस-पास के इलाकों में स्थित रंगाई-छपाई के कारखानों का केमिकल युक्त पानी कुछ ही दिनों में लोहे को भी गलाने की क्षमता रखता है।



इस पानी में बीओडी, सीओडी, टीडीएस और टीएसएस जैसे हारिकारक कैमिकल और कई हैवी मैटल्स हैं। यह न सिर्फ पर्यावरण, कृषि और पशु-पक्षियों के लिए नुकसानदायक है, बल्कि आसपास के खेतों में होने वाली फसलों का सेवन करने वालों में इससे गम्भीर बीमारियां भी हो रही हैं।



ट्रीटमेंट प्लांट नहीं होने से रंगाई-छपाई के बाद बहने वाला पानी पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं के लिए खतरनाक साबित हो रहा है। इससे भी बड़ा खतरा इस पानी के उपयोग से पैदा होने वाले फल-सब्जी तथा फसलों के उपयोग से होने वाले विभिन्न जानलेवा रोग हैं।



पानी की कमी और प्रदूषण के कारण भूजल में फ्लोराइड की मात्रा काफी बढ़ गई है, हैपेटाइटिस-ई जो दूषित जल से फैलता है, जिसके कारण लोगों के हाथ-पैर टेढ़े हो गए हैं। व्यक्ति पर 40 की उम्र में ही 60 जैसा असर दिखने लगता है। फ्लोराइड का असर दांतों पर ही नहीं पूरे शरीर पर पड़ता है।



सरकार की ढिलाई से सांगानेरी प्रिंट उद्योग पर संकट खड़ा हो गया है।



पर्यावरण मापदंडों पर खरा नहीं उतरने के कारण प्रदूषण नियंत्रण मंडल ने 750 रंगाई-छपाई फैक्ट्री मालिकों को फैक्ट्री बंद करने के नोटिस जारी कर दिये है। बिजली कंपनी एवं जलदाय विभाग को इन फैक्ट्रियों के बिजली—पानी के कनेक्शन काटने को कहा गया है। मंडल ने जिला कलेक्टर को फैक्ट्री बंद नहीं करने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई को भी लिख दिया है।



इन इकाइयों में दुनिया भर में प्रसिद्ध सांगोनरी छपाई व रंगाई का काम किया जाता है। सांगानेरी प्रिंट का उपयोग बेडशीट बनाने के साथ गारमेंट में होता है। इनका सालाना कारोबार लगभग सात सौ करोड़ रुपये हैं, जबकि सालाना तीन सौ करोड़ रुपये की सांगानेरी प्रिंट बेडशीट और गारमेंट का निर्यात किए जा रहे हैं।



इकाइयों को बंद करने के नोटिस पर अब अमेरिका, इंग्लैंड में भी चिंता महसूस की जा रही है। इन देशों में रहने वाले आयातक राजस्थानी प्रदेश की शान माने जाने वाले जयपुर के इस उद्योग पर आए संकट से आहत हैं।



सुप्रीम कोर्ट का फैसला हक में आने के बावजूद सांगनेर में लगी रंगाई-छपाई इकाइयां मुश्किल दौर से गुजर रही हैं। सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2009 में सांगानेर की इकाइयों के हक में फैसला सुना दिया था और इकाइयों से निकलने वाले गंदे पानी के लिए ट्रीटमेंट प्लांट लगाने के निर्देश दिए थे। इन इकाइयों से निकलने वाले प्रदूषित पानी के लिए सांगानेर में दो प्लांट लगाना तय किया है।



इन प्लांटों पर कुल 46 करोड़ रुपये की लागत आने का अनुमान है। इस लागत की 75 फीसदी राशि केंद्र सरकार और 10 फीसदी राशि राज्य सरकार को वहन करनी है। शेष राशि उद्यमियों को लगानी है। यह प्लांट लगने के बाद ही सांगानेर की इकाइयों को भू उपयोग बदलने की अनुमति मिलनी है। लेकिन उद्यमियों की तमाम कोशिशों के बावजूद न तो ट्रीटमेंट प्लांट लग पाया है और ना ही भू उपयोग बदलने की अनुमति मिल सकी है। इसके चलते सांगानेर की इकाइयों की मुश्किलें बढ़ती जा रही है।



पिछले वर्ष दुनिया भर में आर्थिक सुस्ती की वजह से निर्यात और घरेलु कारोबार प्रभावित होने से सांगानेर स्थित इकाइयों की वित्तीय हालात खराब हो गई है, जबकि औद्योगिक भूमि में नहीं होने से इन इकाइयों को बैंकों से लोन भी नहीं मिल पा रहा है। उद्यमी लगातार सरकार को समस्याओं से अवगत करा रहे हैं। लेकिन जयपुर विकास प्राधिकरण व उद्योग विभाग के ढीले रवैये के कारण इन इकाइयों को भू उपयोग बदलने की अनुमति नहीं मिल सकी है। अब यह दोनो विभाग यह कह रहे हैं, कि जब तक ट्रीटमेंट प्लांट नहीं लग जाता है भू उपयोग बदलने की अनुमति नहीं मिल सकती।



अब अंडरटेकिंग का ही सहारा



पर्यावरण मापदंडों पर खरा नहीं उतरने के कारण प्रदूषण नियंत्रण मंडल ने 750 रंगाई-छपाई फैक्ट्री मालिकों को फैक्ट्री बंद करने की अब तक सबसे बड़ी कार्यवाही के बाद उद्योग ने 14 महीने का समय माँगा है । इसके लिए उद्यमियों से मंडल द्वारा व्यक्तिगत अंडरटेकिंग मांगी जा रही है । इसके बावजूद विद्युत विभाग ने 15 दिन में विद्युत सम्बन्ध विच्छेद करने के आदेश पारित कर दिए है । इस प्रकार की दोहरी नीतियाँ दर्शाती है की सरकार की मंशा में खोट है वो इस बहाने अपने वोट बैंक को भी बचाके रखना चाहती है और मंडल को उद्यमियों की सम्पूर्ण सूची भी उपलब्ध करना चाहती है तथा यूँ भी कह सकते है कि इस सबके पीछे विदेशी हाथ भी हो सकते है जो सरकार के साथ मिलकर इस उद्योग को बंद कर यंहा पर सस्ती दरो में कमर्शियल उपयोग के लिए जमीने लेना चाहते हों ।



एकता के अभाव में टाइम पास प्रोग्राम



जानकारों का मानना है कि अंडरटेकिंग देना रंगाई - छपाई से जुड़े उद्यमियों का टाइम पास प्रोग्राम का एक और चरण है क्योंकि न तो उद्यमी एक मंच पर इकट्ठे होंगे और न ही प्लांट के लिये धन इकठ्ठा होगा। क्योंकि कोई भी उधमी इस संकट को गंभीरता से नहीं ले रहा है चाहे वो धुलाईवाला है छपाईवाला है या रंगाईवाला है सबका कहना है कि जो सबके साथ होगा वो हम भी भुगत लेंगे। कहने का अभिप्राय यह है कि एकता के अभाव तथा कुछ लोगो के स्वार्थ के कारन तीन लाख लोगो के स्वरोजगार के साथ कुठाराघात हो रहा है जिसमे सबसे ज्यादा उन लोगो का मरण है जो किराये के कारखानों में अपनी इकाई चलाते है एवं आर्थिक कमजोर है। हो सकता है एकबारगी जो लोग धनाढ्य वो तो अपने आप को अन्यत्र स्थापित कर सकते है लेकिन गरीबों का कोन धणी होगा इसका उत्तर किसी के पास नहीं है।


हमारा कसूर क्या है ? हम कोशिश तो कर रहे है


सरकार इस मसले पर खुद ही गंभीर नहीं है और अपनी ढिलाई का ठीकरा रंगाई - छपाई व धुलाई वालीं के सर फोड़ना चाहती है । ट्रीटमेंट संयत्र कि फिजिबिलिटी के मसले पर सुप्रीम कोर्ट में प्रदुषण मंडल और सरकार ने ही अपनी सहमती दी थी, उसी के आधार पर 30 अप्रेल 2009 को फैसला हुआ, तीन साल का समय मिला लेकिन इस समय में न तो उद्यमियों और न ही सरकार कि तरफ से कोई त्वरित और ठोस कार्यवाही हुई जिसका नतीजा है कि आज उपक्रम बंद करने कि नोबत आ गई है जिससे कुल मिलाकर यह है कि तीन लाख लोगो कि रोजी रोटी पर बन आई है



पारम्परिक अद्वितीय सांगानेरी ब्लॉक प्रिंट के लिए भी खतरा



हाथ ब्लॉक छपाई भारत में सदियों पुरानी परंपरा है.लगभग 500 वर्ष पुराना है,



हाथ ब्लॉक छपाई शिल्प एक विरासत के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है.


हाथ ब्लॉक छपाई में सीमित उत्पादन और गहन मानव इनपुट है,



सीमित पानी,, प्राकृतिक रंजक के साथ बना, सांगानेरी हैण्ड ब्लॉक प्रिंटेड एक ब्रांड नाम हैं, परंपरागत शैली के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता है.



हैण्ड ब्लॉक प्रिंट से सांगानेर में कार्यरत 350 इकाइयाँ लगभग 3000 परिवारों को रोजगार प्रदान करती हैं.20,000 लोग इस शिल्प पर अपनी आजीविका के लिए निर्भर है.



सांगानेरी ब्लॉक प्रिंट में सीमित पानी की आवश्यकता होती है, प्रदूषण प्रबंधनीय सीमा के भीतर है. "Azo मुक्त रसायनों का प्रयोग, प्राकृतिक रंजक, यह पर्यावरण के अनुकूल है.



स्क्रीन प्रिंटिंग इस क्षेत्र के मुख्य प्रदूषक हैं, तो फिर सांगानेरी हैण्ड ब्लॉक प्रिंट को क्यों दंडित किया जाना चाहिए ?

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Thursday, September 2, 2010

द्रव्यवती नदी, उर्फ अमानी शाह का नाला

कभी यह नदी जयपुर की जीवनरेखा थी। जयपुर शहर के उत्तर-पश्चिम से निकलकर पश्चिम-दक्षिण होती हुई, ढूण्ड नदी में मिलने वाली, द्रव्यवती नदी, उर्फ अमानी शाह का नाला, जयपुर शहर की जीवनरेखा रही है। सर्वे ऑफ इंडिया द्वारा प्रकाशित सन् 1865-66 के नक्शों में भी इस नदी को साफ तौर पर दर्शाया गया है। उसके बाद भी सर्वे ऑफ इंडिया द्वारा प्रकाशित नक्शों में नदी साफ तौर पर चिन्हित है। यदि नदी कहीं नहीं है, तो राजस्थान सरकार के राजस्व विभाग के रिकार्ड में।
देखने में यह आया कि पानी की कमी और प्रदूषण के कारण भूजल में फ्लोराइड की मात्रा काफी बढ़ गई है, जिसके कारण लोगों के हाथ-पैर टेढ़े हो गए हैं।
मजे की बात यह रही कि सरकार आंकड़ों से भी द्रव्यवती नदी का नाम गायब होने लगा था। 1981 के एक सर्वे में बाकायदा इस नदी का नाम अमानीशाह नाला रख दिया गया। अमानीशाह नाले को सरकार नदी के रूप में स्वीकार करे और नदी का एक मानचित्रीकरण हो ताकि इसके पेटे में आवासीय कॉलोनियां और बस्तियों को बसने से रोका जा सके। सरकार ने इसके लिए एक प्लान बनाया। नदी का सर्वे करके और पुराने आंकड़ों के आधार पर चिन्हीकरण हुआ। नदी के क्षेत्रफल को परिभाषित करने वाले नदी के किनारों पर पिलर लगा दिए गए और सरकार ने आदेश जारी किए कि इस क्षेत्र के अंदर कोई भी निर्माण अवैध माना जाएगा।
फरवरी 2007 में सरकार ने दुबारा फिर सर्वे किया है और नदी की चौड़ाई सरकार ने काफी कम कर दी है। यह सारा काम भू-माफियाओं के दबाव में किया जा रहा है। भू-माफिया और रीयल एस्टेट बिल्डर्स नदी के पेटे और खादर क्षेत्र में निर्माण काम कर रहे हैं, जो सरकार पर दबाव बनाकर के नदी की चौड़ाई कम कराने में सफल रहे हैं।
सरकार एवं उसके विभिन्न विभागों तथा निकायों द्वारा इस नदी के संरक्षण संवर्धन के नाम पर जो प्लान बनाये, उनमें भारी अनियमितताओं को देख लगता है कि ''सरकार स्वयं ही इस नदी को नाले में तब्दील करने पर अमादा है

द्रव्यवती नदी के किनारे पुराने रजवाड़ों का बंगला, बोट हाउस के साथ ही नदी पर बने कई बांध और बांध से निकली नदियां गवाह हैं कि द्रव्यवती नदी सदानीरा हुआ करती थी।
नदियों के मामले में सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि केंद्रीय जल आयोग की परिभाषाओं में सिर्फ बड़ी नदियां ही नदी मानीं जाती हैं। केंद्रीय जल आयोग ने राजस्थान में सिर्फ चम्बल को ही नदी के रूप में चिन्हित कर रखा है। हजारों छोटी नदियों के संबंध में कोई भी आयोग, बोर्ड, कमीशन कुछ भी नहीं है। राजस्थान में बीकानेर और चुरू को छोड़कर कोई ऐसा जिला नहीं है जहां नदियां न हों। हमें इन छोटी नदियों को जिंदा रखना होगा। जिन्दा इसलिए भी रखना होगा कि ये नदियां सिर्फ पानी का प्रवाह ही नहीं करतीं, बल्कि भूमिगत धाराओं को भी जिंदा करती हैं। अगर ये छोटी नदियां मरती हैं तो भूमिगत धाराएं भी मर जाएंगी। छोटी नदियों का दोहरा महत्व है। जमीन के नीचे की धारा को जिंदा रखने के लिए ऊपर की धारा जिंदा होनी चाहिए। ग्लोबल वार्मिंग की स्थिति में जब मौसम अनियमित हो जाएगा। अत्यधिक वर्षा, अत्यधिक सूखा, अत्यधिक तूफान इन सबमें छोटी नदियाें की जरूरत होगी। अधिक वर्षा की स्थिति में ये छोटी नदियां बाढ़ के पानी को बहाकर नीचे ले जाएंगी और सूखे की स्थिति में जमीन की नमी बनाए रखने में योगदान करेंगी। जमीन की नमी से ही पेड़-पौधाें का जीवन है। पेड़-पौधों से ही पर्यावरण और पर्यावरण, वन्य जीवन, प्रकृति, मानव अस्तित्व संभव है। बाड़मेर में आई बाढ़ इसका ज्वलंत उदाहरण है। बाड़मेर की कवास नदी जो पूरी तरह मर चुकी है और उसके पेटे में आवासीय कॉलोनियां बस गई हैं, यही वजह हुई कि थोड़ा भी ज्यादा पानी बरसा तो पूरा बाड़मेर डूब गया।
जमीन की यह भूख क्यों है? क्या जनसंख्या वृध्दि ही मुख्य कारण है? पर मैं तो इससे बड़ा कारण शहरी भूमि हदबंदी सीमा का खत्म होना मानता हूं। पहले जयपुर में मात्र 500 वर्ग मीटर अधिकतम भूमि सीमा था। इससे ज्यादा जमीन कोई नहीं रख सकता था, पर अब तो जयपुर विकास प्राधिकरण ही 1500 वर्ग मीटर के प्लॉट बेच रहा है। पहले लोग शेयर और गोल्ड में निवेश करते थे, अब तो भूमि में कर रहे हैं। परिणाम सामने है कि पूरा देश रीयल एस्टेट के रूप में विकसित होने की दिशा में बन गया है।

जयपुर की जीवन रेखा- द्रव्यवती नदी उर्फ अमानीशाह नाला बचाने के लिए

जयपुर शहर को बसाने वालें ने, इसको परिस्थितिकी विज्ञान के अनुसार बहुत ही बढ़िया तरीके से बसाया। इसके उत्तर पूर्व से लेकर उत्तर पश्चिम तक पहाड़ हैं। जो कि किसी समय घने वृक्षों से ढके रहते थे। जिनके कारण मिट्टी का कटाव नहीं के बराबर था। शहर के पश्चिम में करीब तीन मील की दूरी पर एक नदी बहती है। जिसका उद्गम उत्तर की दिशा में स्थित नाहर गढ़ की पहाड़ियों, (अरावली) में स्थित विभिन्न कुंड हैं, जिनमें आथुनी का कुंड प्रमुख है। दूसरी धारा मायला बाग से आती हुई अमानीशाह दरगाह के पास आकर आथुनी के कुंड से आने वाली धारा में मिल जाती है। फिर यह धारा उत्तर से दक्षिण, पूर्व की तरफ मोड़ खाती हुई, शहर के पूर्वी भाग में बहने वाली ढूण्ड नदी में मिल जाती है, जो कि तत्पश्चात मोरल नदी में मिलती हुई राजस्थान की एक मुख्य नदी बनारस में जाकर मिलती है। उत्तर की दिशा में बहने वाली इस जलधारा को ही कई इतिहासकारों ने द्रव्यवती नदी के नाम से चिन्हित किया है। जानकारों का मानना है कि नदी की कुल लंबाई 40 किमी होगी। लेकिन कालान्तर में पहाड़ियों पर धीरे-धीरे जंगल खत्म हो जाने के कारण, नदी की धारा पतली होती चली गई। साथ ही इनके किनारे पर अमानीशाह नाम के फकीर का स्थान होने के कारण, बाद में इसे अमानीशाह नाला कहा जाने लगा। रास्ते में इस धारा में कई छोटे नाले और बरसाती धारायें आकर मिलती हैं।

इतिहासकार ए के राम (History of jaipur city) के अनुसार सन् 1920 तक जयपुर शहर के लिए पाइप द्वारा पीने के पानी की सप्लाई का एकमात्र स्रोत अमानीशाह का नाला ही था। शहर में काफी कुएं थे, लेकिन उनका पानी पीने के लिहाज से अच्छा नहीं माना जाता था। रामगढ़ बांध से, जयपुर शहर के लिए पानी की सप्लाई इसी नदी से होती थी। 1844 से 1853 तक इस धारा पर एक कच्चा बांध भी बनाया गया ताकि शहर की तरफ जाने वाली नहरों में पानी लाया जा सके। लेकिन यह बांध तकनीकी कारणाों से सिर्फ तीन साल चला। 1875 में फिर से एक बांध इस धारा पर बनाया गया और धारा के पूर्वी किनारो पर पम्प सेट स्थापित किए गए, जिनसे पानी एक टांके में इकट्ठा किया जाता और फिर पाइपों के जरिए शहर के विभिन्न भागों को सप्लाई किया जाता। फिर बांध के भराव के कारण (1896 में छप्पनिया अकाल पड़ा था) बांध के पेटे में ही कुएं (पम्प सेट) और टयूबवेल खोदे गए। जो कि आज तक मौजूद है, और काम कर रहे हैं। लेकिन समय के साथ-साथ जैसे 1958 और 1971-72 में इन कुओं का पानी निकालने की क्षमता बढ़ाई गई साथ ही विभिन्न क्षेत्रों में इसके किनारे पर एवं इसके पेटे में नये टयूबवेल भी खोदे जाते रहे। धारा के किनारे पर घाट बनाए गए तथा बाग-बगीचे भी लगाए जाते रहे।

सांगानेर गांव के पुराने छपाई वाले बताते हैं कि इस नदी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। कच्चा बंधा, रावल जी का बंधा, हाथी बाबू का बांध, ख्वास जी का बांध, गूलर बांध एवं रामचन्द्रपुरा का बांध सिंचाई के मकसद से ही बनाए गए। सांगनोर स्थित गूलर का बांध एक क्पअपेवद कंउ है। जिससे पानी क्पअमतज होकर पश्चिम में स्थित नेवटा ग्राम के जलाशय, दक्षिण में खेतपुरा होता हुआ ग्राम चन्दलाई और उसके भर जाने के पश्चात चाकसू (जयपुर शहर से 40 किमी दूर) के पास स्थित शील की डूंगरी के जलाशय में जाता रहा है। खेतापुरा में ही रामचन्द्रपुरा बांध से, बिलवा होकर आने वाली नहर भी मिलती है। इन जलाशयों एवं नदी से सैकड़ों गांवों की हजारों बीघा जमीन में सिंचाई की जाती रही है।

डाई वेस्ट वॉटर भी हो सकता है रिसाइकल

Source: भास्कर न्यूज | Last Updated 09:10(07/06/10)

जयपुर. टेक्सटाइल इंडस्ट्रीज में कपड़ों को रंगने की प्रक्रिया में लाखों लीटर पानी प्रयोग किया जाता है। इस पानी में कटौती तो नहीं की जा सकती, लेकिन इस कैमिकल युक्त रंगीन पानी का रिसाइकल कर दुबारा काम में लिया जा सकता है। जल जागरण अभियान के तहत सिटी रिपोर्टर ने शहर के स्टूडेंट्स और उनके फै कल्टीज से बात की जिन्होंने इस पर रिचर्स की है और जाना कि डाई वेस्ट पानी को कैसा प्योरीफाई किया जा सकता है।

सरकार डाई वेस्ट वॉटर पर करे विचार

सांगानेर स्थित रंगाई-छपाई की 1३५ यूनिटों से रोजाना लाखों लीटर डाई वेस्ट वॉटर निकलकर अमानीशाह नाले या सड़क किनारे फैल रहा है। सरकार को इस वॉटर क ो प्यूरिफाइ करके प्योर वॉटर बनाने पर विचार करना चाहिए। यह कहना है शांति एजुकेशन सोसायटी ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूट के कैमिस्ट्री डिपार्टमेंट के एचओडी डॉ. गौतम सिंह का। उन्होंने बताया कि इस पानी में बीओडी, सीओडी, टीडीएस और टीएसएस जैसे हारिकारक कैमिकल और कई हैवी मैटल्स होते हैं। यह न सिर्फ पर्यावरण, कृषि और पशु-पक्षियों के लिए नुकसानदायक है, बल्कि आसपास के खेतों में होने वाली फसलों का सेवन करने वालों में इससे गम्भीर बीमारियां भी हो सकती हैं।

सॉ-डस्ट से शुद्धीकरण सम्भव

डाई इंडस्ट्री से निकलने वाले गंदे पानी को कम लागत में रिसाइकल कर फिर से काम में लिया जा सकता है। यह कहना है शांति एजुकेशन सोसायटी ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशंस के स्टूडेंट्स त्रिलोचन यादव, भाग्यश्री मेवाड़ा, समरिता गुप्ता और दीपक अतरे का। उन्होंने इसके लिए रिचर्स कर शुद्धीकरण का एक बेतहर तरीका खोजा। उन्होंने डाई वेस्ट वॉटर को रिसाइकल करने के लिए सॉ-डस्ट (लकड़ी का बुरादा) को एक जार में भरकर इसकी कुछ परतें बनाईं। फिर इसमें कैमिकल युक्त डार्क मेहरून डाई वेस्ट वॉटर डाला। थोड़ी देर में सॉ-डस्ट ने नेचुरल एडजॉर्डेंट की प्रक्रिया से कैमिकल्स को एब्जार्ब कर वॉटर को प्यूरिफाई कर दिया। इसका ओजोनीकरण करके या इसमें फिटकरी या क्लोरीन डालकर इसे बैक्टीरिया मुक्त कर साफ किया जा सकता है।

अमानीशाह नाले में अपनाएं यह प्रक्रिया

रिसर्च के गाइड डॉ. सारू गुप्ता और डॉ. गौतम ने बताया कि इस प्रक्रिया को अमानीशाह के नाले में अपनाकर रंगाई-छपाई की यूनिटों से निकलने वाले डाई वेस्ट वॉटर को शुद्ध और बैक्टीरिया मुक्त कर रिसाइकल किया जा सकता है। इसके लिए नाले में जहां यह डाई वेस्ट वॉटर आकर मिल रहा है, वहां सॉ-डस्ट के कॉलम (मोटी परतें) बनाए जाएं। इससे यह कॉलम नेचुरल एडर्सोडेंट प्रक्रिया से वॉटर में शामिल सभी कैमिकल्स और मैटल्स को एब्जार्ब कर वहीं रोक ले और पानी प्यूरिफाइड होकर आगे जाए। इस प्यूरिफाइड वॉटर को ओजोनीकरण विधि से बैक्टीरिया मुक्त करें।

फिर इसे रीयूज करने के लिए इसको आसपास के खेतों की ओर मोड़ा जा सकता है या किसी फैक्ट्री में इसका प्रयोग किया जा सकता है। इस प्रक्रिया से लाखों लीटर डाई वेस्ट वॉटर का सदुपयोग किया जा सकता है।


कहां करें इसका रीयूज

कृषि पैदावार के लिए इस पानी का प्रयोग कर सकते हैं। घर के लॉन में देने और गाड़ियों क ो धोने के लिए इसका प्रयोग कर सकते हैं। किसी भी इंडस्ट्री या सांगानेर की डाई इंडस्ट्री में भी फिर से प्रयोग कर सकते हैं।

शुद्धीकरण का फायदा

> नेचुरल रिसोर्सेज की बचत

> वॉटर ट्रीटमेंट के इलेक्ट्रो कैमिकल मैथड से सस्ता होता है।

> वुडन इंडस्ट्री के आसानी से और सस्ते में मिलने वाले वेस्ट सॉ-डस्ट का भी सही इस्तेमाल होता है।

> बड़ी इंडस्ट्रीज भी इस प्रक्रिया को अपनाएं तो बहुत अच्छा है।

क्या आप जानते हैं जान लेवा बन रहा है पानी

दूषित जल से सिंचिंत फसलों के इस्तेमाल से मनुष्य पर पडऩे वाले दुष्प्रभाव

हैपेटाइटिस-ई जो दूषित जल से फैलता है,

शहर के अमानीशाह नाले व इंडस्ट्रियल एरिया में पानी में बहाए जाने वाले हैवी मैटल्स व डिस्चार्ज टॉक्सिक्स का इस्तेमाल सिंचाई में भी होता है। ऐसे में ये खतरनाक तत्व फल व सब्जियों के जरिए हमारे शरीर तक पहुंच जाते हैं।

सांगानेर में स्क्रीन रंगाई-छपाई उद्योगों से दूषित पानी / एवं मनुष्य पर पडऩे वाले दुष्प्रभाव ?

ड्रिंकिंग वाटर में 1.5 पीपीएम फ्लोराइड की मात्रा का मानक सही है, लेकिन जो पानी हम पी रहे हैं उसमें ये संख्या 3 से 10 पीपीएम तक पहुंच गई है, जो कि क्षेत्र विशेष पर निर्भर है। जिसका दुष्प्रभाव कुछ ही वर्षों में हमारे शरीर पर साफ दिखाई देने लगता है। हड्डियां कमजोर पडऩे लगती हैं, व्यक्ति पर 40 की उम्र में ही 60 जैसा असर दिखने लगता है। फ्लोराइड का असर दांतों पर ही नहीं पूरे शरीर पर पड़ता है।

सांगानेर के आसपास के क्षेत्र में फ्लोराइड की समस्या विकट रूप ले चुकी है।